आज़ादी
कभी तुमने अपनी साँसों को आज़ाद छोड़ा है?
समंदर से किनारें की तरफ़ आते हुए,
सरसराते पत्तों को आवाज़ मुहैय्या कराने वाली,
बादलों की टोली को,
इधर उधर करती करती नादान हवाओं में,
क्या देखा है तुमने आज़ादी को करीब से?
कैसे खुश होती है वो जब,
जब पहाड़ों से नीचे फिसलते हुए,
फुदकते हुए, जमीन को चूम लेती है।
आवारा पत्तों को भी इश्क़ हुआ करता है,
बहती हवा से,
क्या सोचा है तुमने कभी?
उनके प्रेम के बारे में?
तुम्हारी छत पर भी आ गिरा था कभी,
पीपल का एक पत्ता।
कभी सोचा था,
सुबह खुली खिड़की से,
तुम्हारे कमरे तक आ पहुँची ताजा हवा में,
उस पत्ते की एक मोहतरमा थी।
जिसने तुम्हे कैद कर दिया,
लम्बी साँस लेते हुए।
कौन कहता है तुम खुदगर्ज़ नहीं हो,
जन्म से मृत्यु तक अपने स्वार्थ के लिए,
आज़ाद हवाओं के कुछ हिस्से अपने नाम करने वाले,
तुम भी तो हो जिसने अपनी अभिलाषा,
साँसो को कैद करके पूरी की।
जिसने खरीद ली अपनी यात्रा की टिकट,
साँसों के चंद सिक्कों से।
आज़ादी के अपने कुछ मायने हैं,
कुछ लोग बोल नहीं पाते,
नहीं व्यक्त कर पाते अपने जज़्बात,
मैं चाहता हूँ,
तुम सोचो उनके बारे में भी।
यहाँ हर कोई किसी ना किसीका,
अपने आप को बेदाग़ समझने से पहले,
झांक लेना अपने गिरेबाँ में।
अपनी जीवन यात्रा पूरी करने के लिए,
तुमने भी इस्तेमाल किया है कुछ आज़ाद हवाओं का।
हर मज़हब के लोग,
जब स्वार्थ की बात आती है तो धर्मनिरपेक्ष हो जाते हैं।
कभी पूछा है?
साँसो को?
कौन जात, मज़हब हो ?
जब जरुरत जीवन मृत्यु के भवँर में फस जाती है,
तो, मायने नहीं रखतीं बाकी सब चीज़े।
मायने नहीं रखता,
मस्जिद के ठीक सामने,
किसी ब्राह्मण की दुकान से,
मौलवी का फूल खरीदना।
आज़ादी धर्म, जात के बंधन से मुक्त होती है।
आज़ादी सिर्फ वतन, या चंद लोगों की नहीं होती।
आज़ादी, अभिलाषा, प्रेम मायने रखता है,
उस माशूका का भी,
जिसे तुम्हारी छत पर आ गिरे, पीपल के एक पत्ते से हुआ है।
और तुमने,
सुबह की पहली लम्बी साँस में उसे कैद कर लिया।
मानलो स्वार्थ सब पर हावी है,
यहाँ कोई निःस्वार्थ नहीं।
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