आंधी





आंधी, जरा आहिस्ता चलो..
आजकल ज़रा इतराके चल रही हो..
तुम आई, ऐसे अचानक..
हवाएं भी इतराती हैं तुम्हारी सियासत में..
कहती है उसके सिवा तेरा वज़ूद ही नहीं।
वैसे हवाओं के कंधे पर बंदूक रख कर,
मेरे मकां की शिकार करने पे तुली हो।
झोपडीनुमा मकां है।
यकीं की सुतलियाँ बेखौफ़ थी..
कल तक..
सोच रही थी, मिटना तो है ही इक दिन,
आंधियाँ आएगी कभी।
आज जी लूँ जरा,
साथ दे दू इन हकीकत के दीवारों का..
वैसै दीवारें भी हो जाती हैं,
गलतफैमी की शिकार,
सोचती हैं, मकां मुझसे वाबस्ता है।
कसूर इनका नहीं..
गुरूर सर चढ़ कर बोलता है कभी..
जैसे आज तुम डुबी हुई हो..
गुरूर के समंदर में।
खैर, एक बात याद रखना..
सियासत बदलती है..
और हाँ, मेरा आशियाँ गर उजड़ भी गया..
तो क्या हुआ ?
मेरा अस्तित्व घास के तिनके की तरह है,
आंधी गुज़र जाने के बाद फिर खड़ा हो जाऊंगा।
तेरी आंखो में मुझे,
हम जैसों का कत्ल-ए-आम दिखता हैं..
प्रकृति को मेरे आंखो में,
जिवीत एक प्राण दिखता है....
-नीरज
Image source : Google

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